भारत के राज्यपाल
देश में आजादी के उपरांत जब नए संविधान का निर्माण हो रहा था तब संविधान सभा की ‘प्रांतीय संविधान समिति’ ने यह सुझाव दिया था कि राज्यपाल का जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनाव होना चाहिए, परन्तु संविधान सभा में इस बात पर आम सहमति नहीं थी।
एक तरफ जहाँ भीमराव अंबेडकर व जवाहर लाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता “मनोनीत राज्यपाल” चाहते थे वहीं कृष्णामाचारी , जी.वी. पंत तथा खेर जैसे नेतागण “निर्वाचित राज्यपाल” के पक्ष में थे।
अंततः संविधान सभा ने कनाडा के संविधान का अनुसरण करते हुए मनोनीत राज्यपाल की पद्धति को पूर्ण रूप से आत्मसात किया।
क) चूंकि राज्यों में भी संघ के समान संसदीय शासन प्रणाली अपनाया गया था। अगर ऐसा होता तो एक राज्यपाल को भी संसदीय शासन प्रणाली के अधीन कार्य करना था। इस तरह एक निर्वाचित राज्यपाल तथा संसदीय शासन प्रणाली आपस में मेल नहीं खा रहे थे।
ख). राज्यपाल का जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होने पर मुख्यमंत्री से मतभेद व संघर्ष की प्रबल संभावना अधिक थी। निर्वाचित राज्यपाल अपने आप को मुख्यमंत्री से बड़ा मान सकता है तथा वह कार्यपालिका की वास्तविक शक्तियों को ग्रहण कर सकता है। साथ ही वह संवैधानिक प्रमुख न रहकर वास्तविक प्रधान भी बन सकता है।
ग). राज्यपाल के निर्वाचन का आशय होता एक और निर्वाचन, जो किसी प्रमुख राजनीतिक मुद्दे पर न लड़कर आम चुनावों की भांति सिर्फ व्यक्तिगत मुद्दे पर लड़ा जाता जिससे चुनाव आयोग पर अतिरिक्त भार होता साथ ही सरकारी पैसों का अतिरिक्त व्यय होता।
घ). निर्वाचित राज्यपाल को न स्वीकार करने का एक डर यह भी यह भी था कि इसमें राज्यपाल किसी राजनीतिक दलों की एक कठपुतली मात्र बनकर रह सकता था जिसे अन्य राजनीतिक पार्टियां अपने हिसाब से अप्रत्यक्ष रूप से इसका संचालन करती।
ङ). वास्तविक रूप से राज्यपाल की भूमिका राज्य में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मध्यस्थ एवं निर्णायक की है। एक निर्वाचित राज्यपाल स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न रहकर दलबन्दी एवं गुटबंदी का शिकार हो सकता है।
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